
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका खारिज की ‘कैश-एट-होम’ कांड में महाभियोग की राह खुली
7 अगस्त 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज और वर्तमान में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपने सरकारी आवास में भारी मात्रा में नकदी बरामद होने के मामले में गठित आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना की महाभियोग की सिफारिश को चुनौती दी थी। इस फैसले ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया को तेज करने का रास्ता साफ कर दिया है। यह मामला, जिसे ‘कैश-एट-होम’ कांड के नाम से जाना जा रहा है, ने न केवल न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही के सवाल उठाए हैं, बल्कि यह भी दर्शाता है कि उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों को भी कानून के सामने जवाबदेह होना पड़ता है। इस लेख में, हम इस मामले की पृष्ठभूमि, जांच प्रक्रिया, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, और इसके व्यापक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
पृष्ठभूमि: ‘कैश-एट-होम’ कांड की शुरुआत
यह विवाद 14 मार्च 2025 की रात को उस समय शुरू हुआ, जब जस्टिस यशवंत वर्मा के दिल्ली के लुटियंस जोन स्थित सरकारी आवास के आउटहाउस में आग लगने की घटना हुई। आग बुझाने के लिए पहुंची फायर ब्रिगेड की टीम ने वहां से भारी मात्रा में नकदी बरामद की, जिसमें कुछ नोटों के बंडल जल चुके थे। इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें धुएं के बीच जले हुए नोट दिखाई दे रहे थे। इस खोज ने न केवल न्यायिक हलकों में हड़कंप मचा दिया, बल्कि जनता के बीच भी व्यापक चर्चा का विषय बन गया।
जस्टिस वर्मा, जो उस समय दिल्ली हाई कोर्ट में जज थे, को इस घटना के बाद 20 मार्च 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया। साथ ही, उनके न्यायिक कार्यों को निलंबित कर दिया गया। 22 मार्च 2025 को, तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति गठित की, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जीएस संधावालिया, और कर्नाटक हाई कोर्ट की जज अनु शिवरामन शामिल थे।
आंतरिक जांच समिति की प्रक्रिया और निष्कर्ष
जांच समिति ने 55 गवाहों, जिसमें जस्टिस वर्मा और उनकी बेटी शामिल थे, से पूछताछ की और फायर ब्रिगेड कर्मियों द्वारा लिए गए वीडियो और तस्वीरों जैसे तकनीकी साक्ष्यों की समीक्षा की। समिति ने पाया कि जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के स्टोररूम में, जो उनके और उनके परिवार के “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण” में था, भारी मात्रा में नकदी मौजूद थी। समिति ने यह भी नोट किया कि जस्टिस वर्मा इस नकदी के स्रोत के बारे में कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दे पाए और केवल “सपाट इनकार या साजिश का आरोप” लगाया। इसके आधार पर, समिति ने उनके खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की।
मई 2025 में, समिति ने अपनी रिपोर्ट CJI खन्ना को सौंपी, जिन्होंने इसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को अग्रेषित करते हुए जस्टिस वर्मा को हटाने की सिफारिश की। CJI ने जस्टिस वर्मा को इस्तीफा देने की सलाह दी, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद, 21 जुलाई 2025 को संसद के मानसून सत्र के पहले दिन, 145 सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को हस्ताक्षरित ज्ञापन सौंपकर जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की मांग की।
जस्टिस वर्मा की याचिका और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
जस्टिस यशवंत वर्मा ने 18 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट और CJI की सिफारिश को चुनौती दी। उन्होंने अपनी याचिका को ‘XXX बनाम केंद्र सरकार’ के नाम से गुमनाम रूप से दर्ज करने की अनुमति मांगी, ताकि उनकी पहचान छिपाई जा सके। याचिका में, उन्होंने तर्क दिया कि जांच प्रक्रिया में वैधानिक प्राधिकार का अभाव था, यह प्रक्रिया संवैधानिक मानकों को पूरा नहीं करती थी, और यह संसद के विशेष अधिकार क्षेत्र (संविधान के अनुच्छेद 124 और 218) का उल्लंघन करती थी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उनकी याचिका स्वीकार नहीं की गई, तो उन्हें “अपूरणीय नुकसान” होगा।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। सुनवाई के दौरान, जस्टिस वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी, राकेश द्विवेदी, सिद्धार्थ लूथरा, और सिद्धार्थ अग्रवाल जैसे प्रमुख वकीलों ने पैरवी की। कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि बिना उचित प्रक्रिया का पालन किए किसी जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, और सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने पहले इस तरह की प्रक्रिया को अमान्य ठहराया था।
30 जुलाई 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। कोर्ट ने जांच प्रक्रिया का बचाव करते हुए कहा कि फायर ब्रिगेड द्वारा लिए गए वीडियो और तस्वीरों को सार्वजनिक करना अनुचित था, लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि जस्टिस वर्मा ने उस समय इसे चुनौती नहीं दी थी।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला
7 अगस्त 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वर्मा की याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि जांच समिति का गठन और उसकी प्रक्रिया अवैध नहीं थी। जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की बेंच ने यह भी स्पष्ट किया कि CJI द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र संवैधानिक रूप से वैध था। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि जस्टिस वर्मा ने पहले जांच प्रक्रिया में भाग लिया और बाद में समिति की सक्षमता पर सवाल उठाए, जिसके कारण उनकी याचिका को सुनवाई योग्य नहीं माना गया।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “CJI और आंतरिक जांच समिति ने प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया, सिवाय वीडियो और तस्वीरों को अपलोड करने के, जिसकी आवश्यकता नहीं थी। लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि याचिकाकर्ता ने उस समय इसे चुनौती नहीं दी थी।”
महाभियोग की प्रक्रिया और संभावित प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया को तेज करने का रास्ता साफ कर दिया है। भारत में किसी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 218 के तहत संचालित होती है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित होना आवश्यक है। यह प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है, और इतिहास में केवल कुछ ही जजों के खिलाफ ऐसी कार्यवाही शुरू हुई है।
इलाहाबाद बार एसोसिएशन ने इस मामले में महाभियोग की मांग करते हुए कहा था कि आंतरिक जांच “अस्वीकार्य” है, और इस तरह के मामलों में पारदर्शी जांच की आवश्यकता है। इसके अलावा, कुछ X पोस्ट्स में जस्टिस वर्मा के खिलाफ तीखी प्रतिक्रियाएँ देखी गईं, जैसे कि एक यूजर ने लिखा, “कानून कहता है कि किसी के स्थान पर मिली नकदी को उसकी मानी जाती है, जब तक वह यह साबित न कर दे कि वह उसकी नहीं है।” हालाँकि, कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने जस्टिस वर्मा को “सर्वश्रेष्ठ जजों में से एक” बताते हुए उनका बचाव किया।
न्यायिक व्यवस्था पर प्रभाव
यह मामला भारतीय न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही के मुद्दों को उजागर करता है। एक उच्च न्यायालय के जज के खिलाफ इस तरह का विवाद न केवल उनकी व्यक्तिगत विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायिक प्रणाली में आंतरिक जांच की प्रक्रिया कितनी जटिल और संवेदनशील हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह संदेश देता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितने भी ऊँचे पद पर हो, कानून से ऊपर नहीं है।
इसके साथ ही, इस मामले ने जनता और मीडिया में व्यापक बहस छेड़ दी है। कुछ लोग इसे न्यायिक स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देख रहे हैं, जबकि अन्य इसे जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम मानते हैं। विशेष रूप से, वीडियो और तस्वीरों के सार्वजनिक होने ने इस मामले को और जटिल बना दिया, क्योंकि इसने गोपनीयता और निष्पक्ष जांच के सवाल उठाए।
जस्टिस यशवंत वर्मा का करियर
जस्टिस यशवंत वर्मा का न्यायिक करियर 13 अक्टूबर 2014 को शुरू हुआ, जब उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में अतिरिक्त जज नियुक्त किया गया। 1 फरवरी 2016 को वे स्थायी जज बने, और 11 अक्टूबर 2021 को उनका तबादला दिल्ली हाई कोर्ट में हुआ। इस कांड के बाद, उन्हें वापस इलाहाबाद हाई कोर्ट भेजा गया और उनके न्यायिक कार्यों को निलंबित कर दिया गया। उनकी कानूनी विशेषज्ञता और अनुभव को कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सराहा है, लेकिन इस विवाद ने उनकी छवि को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, अब संसद में महाभियोग की प्रक्रिया पर सभी की नजरें टिकी हैं। यह प्रक्रिया न केवल जटिल है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील है, क्योंकि इसके लिए दोनों सदनों में व्यापक समर्थन की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, इस मामले ने दिल्ली पुलिस और प्रवर्तन निदेशालय (ED) से औपचारिक शिकायत दर्ज करने और गहन जांच की मांग को भी बढ़ावा दिया है।
निष्कर्ष
‘कैश-एट-होम’ कांड और सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह मामला न केवल जस्टिस यशवंत वर्मा के करियर पर प्रभाव डालेगा, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम उठाए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह संदेश देता है कि कानून सभी के लिए समान है, और उच्च पदों पर बैठे लोग भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
यह घटना हमें यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि न्यायिक प्रणाली में सुधार और पारदर्शिता की आवश्यकता कितनी महत्वपूर्ण है। भविष्य में, इस तरह के मामलों से निपटने के लिए और सख्त और स्पष्ट दिशानिर्देशों की आवश्यकता होगी, ताकि जनता का न्यायपालिका पर भरोसा बना रहे।